
लखनऊ / उत्तर प्रदेश —
रिपोर्ट: आर.के. पटेल, विशेष संवाददाता
हाल ही में उत्तर प्रदेश में डॉ. रजनीश गंगवार द्वारा कांवड़ यात्रा और शिक्षा को लेकर सुनाई गई एक कविता से राजनीतिक भूचाल आ गया। उनकी अभिव्यक्ति को लेकर न सिर्फ सियासी गलियारों में तीखी प्रतिक्रिया हुई, बल्कि उन पर मुकदमा भी दर्ज कर दिया गया। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने कई अहम और बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं – क्या गरीब बच्चों की शिक्षा के अधिकार की बलि चढ़ाकर धार्मिक गतिविधियों को प्राथमिकता देना लोकतांत्रिक और संवैधानिक है?
शिक्षा बनाम कांबड़ उत्सव


डॉ. गंगवार की कविता में खासतौर पर इस बात पर सवाल उठाया गया कि देश में जहां गरीब बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा के लिए जूझना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर कांवड़ यात्रा जैसे धार्मिक आयोजनों के चलते स्कूलों में छुट्टियाँ कर दी जाती हैं। यह विरोधाभास तब और गंभीर हो जाता है जब देखा जाता है कि जिन राजनेताओं की सरकारें ये निर्णय ले रही हैं, उनके अपने बच्चे विदेश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटियों में आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।
सरकारी स्कूलों का बंद होना और उसका प्रभाव
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में हजारों सरकारी स्कूलों को “कम नामांकन” के आधार पर बंद करने का निर्णय लिया गया है। ऐसे में पहले से ही सीमित शिक्षा संसाधनों वाले गरीब बच्चों के लिए पढ़ाई का रास्ता और मुश्किल हो गया है। अब, जब धार्मिक आयोजनों के नाम पर स्कूलों में छुट्टियाँ घोषित की जा रही हैं, तो शिक्षा को लेकर सरकार की प्राथमिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
संवैधानिक दृष्टिकोण
भारत का संविधान हर नागरिक को धर्म की स्वतंत्रता तो देता है, लेकिन उसी संविधान में शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21A) भी मूल अधिकार के रूप में दर्ज है। ऐसे में यदि सरकार धर्म के नाम पर शिक्षा व्यवस्था को प्रभावित करती है, तो यह संविधान की मूल भावना के विपरीत माना जाएगा।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ
डॉ. गंगवार की कविता को लेकर सत्तारूढ़ दल की ओर से तीखी आलोचना की गई, लेकिन विपक्षी दलों और शिक्षा से जुड़े कई संगठनों ने उनके वक्तव्य को सच्चाई के करीब बताया है। विपक्ष का आरोप है कि सरकार धार्मिक भावनाओं को उभारकर वास्तविक मुद्दों – जैसे शिक्षा, बेरोजगारी और स्वास्थ्य – से ध्यान भटका रही है।।
समाज वादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पूर्व मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश अखिलेश यादव ने डॉ गंगवारपर हुई FIR का विरोध करते हुए कहा कि शिक्षा बहुत जरूरी है जिस पर आधारित कविता कंही से गलत नही है,
- निष्कर्ष
यह सवाल अब ज़ोर पकड़ रहा है कि क्या आज की राजनीति में धर्म को शिक्षा से ऊपर रखा जा रहा है? क्या गरीब के बच्चों को सिर्फ धार्मिक आयोजनों में भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाएगा, जबकि अमीरों के बच्चे उच्च शिक्षा के लिए विदेशों में भेजे जाएंगे?
समय आ गया है कि नीति-निर्माता यह तय करें कि भारत का भविष्य किताबों से जुड़ेगा या झांकी और शोभा यात्राओं से।

“शिक्षा ही सशक्तिकरण का आधार है – यदि यही कमजोर होगी, तो देश का भविष्य भी अंधकार में डूब जाएगा।”
✍️ आर.के. पटेल, विशेष संवाददाता
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